रविवार, 25 नवंबर 2012

अंतर्विरोधी निष्पत्तियां


अमरनाथ 
रामचंद्र राय की टिप्पणी ‘हिंदी और मेड़बंदी’ (11 नवंबर) शंभुनाथ और मुरली मनोहर प्रसाद सिंह के लेखों पर प्रतिक्रिया स्वरूप छपी है। तथाकथित तटस्थ विचारधारा वाले अन्य लेखकों की तरह राय को भी साहित्य में मेड़बंदी से एतराज है। उन्होंने लिखा है, ‘जब रामविलास शर्मा ने हिंदी को रूढ़ि से निकाल कर अग्रगामी बनाया तो आलोचकों ने उन्हें मार्क्सवादी आलोचक कहना शुरू कर दिया। चूंकि शर्मा के पास आधुनिकताबोध था, उन्होंने अंग्रेजी साहित्य का पठन-पाठन किया था। उन्होंने हिंदी को आधुनिकताबोध के साथ तराशने का काम किया।’यानी, आधुनिकताबोध उसी के पास हो सकता है जो अंग्रेजी का पठन-पाठन करता है। क्या अंग्रेजी के आने के पहले इस देश के विचारकों में आधुनिकताबोध था ही नहीं? कुछ लोग तो कबीर को भी आधुनिकताबोध से भरा-पूरा मानते हैं। रामविलास शर्मा भक्तिकाल को ‘लोकजागरण काल’ कहते हैं। क्या बिना आधुनिकताबोध के लोकजागरण संभव है? लेखक को शिकायत है कि रामविलास शर्मा को मार्क्सवादी क्यों कहा गया? वे कहते हैं कि, ‘रामविलास शर्मा ने हिंदी साहित्य का विवेचन आधुनिक फलक पर किया, पर इसका पुरस्कार उन्हें मार्क्सवादी आलोचक के रूप में मिला।’ मानो मार्क्सवादी होना पाप है। शायद लेखक को जानकारी नहीं कि रामविलास शर्मा ने अपने को अनेक बार मार्क्सवादी कहा और मार्क्सवाद के प्रति उनकी यह निष्ठा उनमें अंत तक बनी रही। उन्होंने मार्क्स की प्रसिद्ध पुस्तक ‘पूंजी’ के दूसरे खंड, ‘माओ त्से-तुंग ग्रंथावली’ के प्रथम खंड और सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी के इतिहास का अनुवाद किया है। इसके अलावा ‘भारत में अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद’ (दो खंड), ‘मार्क्सवाद और प्रगतिशील साहित्य’, ‘मार्क्स और पिछड़े हुए समाज’, ‘शेली और मार्क्स’, ‘आज की दुनिया और लेनिन’, ‘आज के सवाल और मार्क्सवाद’, ‘पाश्चात्य दर्शन और सामाजिक अंतर्विरोध- थलेस से मार्क्स तक’ आदि उनकी पुस्तकें हैं। लेखक ने अगर रामविलास शर्मा की कोई भी किताब ठीक से पढ़ी होती तो उन्हें कहीं न कहीं उनकी आत्मस्वीकृति जरूर मिल गई होती। उनकी पुस्तक ‘भारत की भाषा समस्या’ के फ्लैप पर उनके परिचय में एक वाक्य है: ‘देशभक्ति तथा मार्क्सवादी चेतना रामविलास जी की आलोचना का केंद्र बिंदु है।’ आखिर रामविलास शर्मा की सहमति से ही पुस्तक के फ्लैप पर यह वाक्य रखा गया होगा। उनकी स्वीकृति को कैसे नकारेंगे आप? मार्क्सवाद एक वैज्ञानिक दर्शन, एक जीवनदृष्टि है। इसे वैज्ञानिक समाजवाद भी कहा गया है। इसमें सिर्फ मार्क्स के विचार नहीं, बल्कि इस दर्शन को समृद्ध करने वालों में मार्क्स से पहले के दार्शनिक हीगेल, मार्क्स के सहयोगी और मित्र फे्रडरिक एंगेल्स, उस दर्शन के प्रथम प्रयोक्ता लेनिन, स्तालिन और चीन के माओ त्से-तुंग भी शामिल हैं। नामवर सिंह ने लिखा है: ‘निराला की साहित्य साधना के दोनों भागों में डॉ रामविलास शर्मा ने एक कवि की व्यावहारिक आलोचना के माध्यम से जो मूल सिद्धांत स्थापित किए हैं वे मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र के मानदंडों और मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र का सर्वोत्तम निरूपण भी है।’ रामविलास शर्मा 1949 से 1953 तक प्रगतिशील लेखक संघ के महामंत्री थे। राय साहब को पता होना चाहिए कि प्रगतिशील लेखक संघ भारत की कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ा लेखकों का सबसे बड़ा संगठन था और आज भी वजूद में है। रामविलास शर्मा कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य भी रहे। राय को साहित्य में मेड़बंदी से एतराज है। उन्हें पता होना चाहिए कि दुनिया में जन्म लेने के साथ ही बच्चे को तरह-तरह की विचारधाराएं विरासत में मिलती हैं। वह उन्हीं

के बीच पलता-बढ़ता है। उसकी चेतना इसी समाज में निर्मित होती है। बाद में उनसे वैचारिक संघर्ष करते हुए ही वह अपनी अवधारणाएं बनाता और विकसित करता है। वह जीवन भर सीखता है। जिसके पास तनिक भी बुद्धि होगी और वह उसका इस्तेमाल करेगा तो वह समाज में फैले किसी न किसी विचारधारा से जुड़ेगा। मजबूती से जुड़ने पर किसी न किसी संगठन का हिस्सा बनेगा। संगठन से जुड़ना अपने विचार और दायित्व के प्रति ज्यादा निष्ठावान होना है। यह कमजोरी नहीं, मजबूती का लक्षण है। हां, हर सचेत और सक्रिय व्यक्ति के विचारों में परिवर्तन होता रहता है। तटस्थता जैसी कोई वस्तु नहीं होती। रामचंद्र राय ने घोषणा की है कि, ‘हिंदी की अपनी संस्कृति नहीं है। इसका कारण है कि हिंदी न किसी प्रदेश या जाति की अपनी बोली है, न होगी।’ उन्हें पता होना चाहिए कि दुनिया की सभी भाषाएं किसी न किसी जाति की होती हैं। कोई भाषा किसी जाति की न हो, यह असंभव है। हिंदी भी ‘हिंदी जाति’ की भाषा है। यह अलग बात है कि हिंदी जाति के भीतर बंगाली, मराठी, तमिल आदि जातियों की तरह जातीय चेतना मजबूत नहीं है। यह दुनिया की सबसे बड़ी जातियों में से एक है, जो आज दस राज्यों में बांट दी गई है। इसीलिए इसका संतुलित विकास नहीं हो सका है। हिंदी जाति के पिछड़ेपन का यह मुख्य कारण है। रामविलास शर्मा आजीवन हिंदी जाति की अखिल भारतीय स्वीकृति के लिए संघर्ष करते रहे। राय साहब ने जिन लेखों की प्रतिक्रिया में लिखा है, उसका शीर्षक ही है, ‘हिंदी जाति के महानायक’। आश्चर्य है कि राय साहब ने उससे भी कोई सीख नहीं ली और हिंदी जाति के अस्तित्व पर ही सवाल खड़ा कर दिया। समझ में नहीं आता कि उनका लेख रामविलास शर्मा के विचारों के समर्थन में है या विरोध में। इतना ही नहीं, उन्होंने लिखा है कि ‘हिंदी भाषी प्रदेशों की अपनी अलग-अलग संस्कृति है।’ यानी एक ओर ‘हिंदी भाषी प्रदेश’ कह कर उनकी भाषाई एकता को स्वीकार करते हैं और दूसरी ओर उनमें सांस्कृतिक भिन्नता भी ढूंढ़ते हैं। इस तरह तो एक गांव क्या, एक ही परिवार में सदस्यों के बीच खान-पान, रहन-सहन आदि के स्तर पर सांस्कृतिक भिन्नता ढूंढ़ी जा सकती है। सवाल है कि आपका उद्देश्य क्या है? भिन्नता ढूंढ़ना या समानता के सूत्र तलाशना? वे लिखते हैं, ‘हिंदी खड़ी बोली का विकास अरबी-फारसी के मिश्रण से हुआ है।’ भाषा विज्ञान की जानकारी रखने वाला व्यक्ति जानता है कि किसी भाषा का विकास किन्हीं दो भाषाओं के मिश्रण से नहीं होता। रामविलास शर्मा ने कई जगह और खास तौर पर हिंदी-उर्दू के रिश्ते पर बात करते हुए इसकी विस्तार से चर्चा की है।  रामविलास शर्मा पर कलम चलाने से पहले उनकी कुछ कृतियों को जरूर उलट-पलट लेनी चाहिए। सबसे आपत्तिजनक बात है कि ‘हिंदी के अध्यापक आधुनिक भारतीय भाषा हिंदी तो पढ़ाते हैं, पर उनमें आधुनिकताबोध नहीं दिखता।’ लेखक को हिंदी के किसी भी अध्यापक में आधुनिकताबोध नहीं दिखाई देता। अब इस पर क्या कहा जाए? जाहिर है, उसने सबको जांचने-परखने के बाद ही ऐसा सूत्रवाक्य कहा होगा। निश्चित रूप से उसके पास दिव्यदृष्टि होगी। साधारण आंखों और मेधा से हजारों-लाखों हिंदी अध्यापकों की जांच कैसे हो सकती है? उसे रामविलास शर्मा में आधुनिकताबोध इसलिए दिखाई देता है, क्योंकि वे हिंदी के लेखक भले थे, अध्यापक अंग्रेजी के थे।

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